कमलकांत त्रिपाठी : रामकथा को लेकर कुछ प्रचलित भ्रांतियाँ.. रावण का व्यक्तित्व.. राक्षस कोई नस्ल नहीं थी…

रावण पुलस्त्य ऋषि (सप्तर्षियों में एक) का पौत्र और एक अन्य ऋषि विश्रवा का पुत्र था। उसकी माँ कैकशी असुर समुदाय से थी, कैकशी के पिता सुमाली असुर समुदाय के राजा थे।

[सुर और असुर दोनों ऋषि कश्यप और उनकी दो पत्नियों दिति और अदिति की संतानें थे। दिति और अदिति सहोदरा बहने थीं और दक्ष की (एक ही पत्नी से उत्पन्न) पुत्रियाँ थीं।]

अपने ग्रुप्स में साझा कीजिए।

सुर समुदाय के कुबेर रावण के सौतेले बड़े भाई थे। उनके पिता भी ऋषि विश्रवा थे और माँ थीं देववर्णिणी (?)। उन्होंने लंका पर अपना राज्य स्थापित किया था। रावण ने कुबेर से लंका का राज्य जीतकर उनका पुष्पक विमान भी छीन लिया था। देवगण रावण की उग्रता से त्रस्त थे। इसलिए रामावतार।

रावण में दुर्गुण थे तो सद्गुण भी थे। उसने रावण-संहिता नाम का एक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा था। दक्षिण में प्रचलित सिद्ध या सिद्धा (?) औषधि पद्धति पर उसके एक ग्रंथ अर्कप्रकाशम्‌ का उल्लेख मिलता है। आज भी अपनी विशिष्ट प्रवहमान भाषा और अद्भुत नाद-सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध और लोकप्रिय शिवताण्डव स्तोत्र रावण-प्रणीत माना जाता है।

मिथकों के अनुसार रावण शिव का असाधारण भक्त था। उसने गोदावरी तट पर शिव की घोर तपस्या की थी। दस बार अपना शिर काटकर शिव को अर्पित कर दिया था और दसों बार नये शिर उग आये थे। दश शिर प्रतीकात्मक हो सकते हैं—काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद (उन्माद), मात्सर्य (ईर्ष्या), मन, प्रज्ञा, चित्‌ (संकल्प) और अहंकार। सभी में कम-ज़्यादा होते हैं। रावण से कहा गया था, प्रज्ञा के अतिरिक्त नौ गुणों को प्रज्ञा के अधीन रखो। किंतु वह असफल रहा।

लंका में उसका शासन चाक चौबंद था। उसके द्वारा अपनी प्रजा पर किसी तरह का अत्याचार करने का कोई सूत्र नहीं मिलता। दूत की भूमिका में उसके दरबार में पहुँचे हनुमान और अंगद के साथ उसका व्यवहार नीति-सम्मत था। विभीषण के विद्रोह करने के बावजूद उसने उसे कोई हानि नहीं पहुँचाई। और सबसे बड़ी बात, उसने परम सुंदरी सीता के साथ कभी ज़ोर-जबर्दस्ती नहीं की, लगातार विवाह के लिए आग्रह करता रहा।

रामावतार लोक और देव-कल्याण तथा अशुभ के विनाश के लिये हुआ था। दक्षिण भारत जंगलों से अटा पड़ा था। वर्तमान नासिक के निकट गोदावरी तट पर पंचवटी तक और उसके उत्तर भी चित्रकूट तक विकट जंगल, पहाड़ियाँ, नदी-नाले और दुर्गम घाटियाँ थीं। इनमें रावण के सहयोगियों या उसके अधीनस्थों का वर्चस्व था। जंगलों के जनस्थानों में मुनि कंद-मूल-फल खाकर तपस्या करते थे किंतु रावण के अनुचर उसमें विघ्न डालते थे, तपस्विओं की हत्या तक कर देते थे। जब राम चित्रकूट में स्थित अत्रि मुनि के आश्रम से ऋषियों-मुनियों के समूह के साथ दक्षिण की ओर आगे बढ़े, मुनि शरभंग की तपस्थली के बाद उन्हें हड्डियों का एक ढेर दिखाई पड़ा। मुनियों से पूछने पर ज्ञात हुआ, ये उन तपस्वियों की हड्डियाँ हैं जिन्हें राक्षसों (असुरों) ने खा डाला था (नष्ट कर दिया था?)। और तब राम ने भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूंगा। फिर उन्होंने सभी मुनियों के आश्रम जाकर उन्हें प्रसन्न (आश्वस्त) किया–

पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल संग लागे।
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥
जानत हूँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥
निसिचर हीन करौँ महि भुज उठाइ पन कीन।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन॥

(अरण्यकाण्ड, 8::2-3 और 9)

विशेष बात यह है कि जैसे ही देवताओं को लगता था कि राम पूर्वनिर्धारित पटकथा के अनुरूप न चलकर, किसी बिंदु से लौट पड़ेंगे या इतर दिशा में मुड़ जायेंगे, उनमें खलबली मच जाती थी।

राम को लौटाने के लिए भरत के साथ तीनों माताएँ, अनेक अयोध्यावासी, सेना और गुरु वसिष्ठ भी चित्रकूट आये हुए हैं जहाँ राम, लक्ष्मण और सीता छोटा-सा आश्रम बनाकर रह रहे हैं। जनकपुर से सपत्नीक राजा जनक भी पधार गये हैं। काफ़ी दिनों से पड़ाव डाले, अनेक असुविधाएँ झेलते, सभी लोग चित्रकूट में अनिश्चय की स्थिति में रह रहे हैं। भरत स्वयं राम के बदले वन जाने को तैयार हैं। राम पर जबर्दस्त दबाव है। राम से वार्ता करने, भरत, जनक और पूरे समाज के साथ गुरु वसिष्ठ राम के आश्रम आते हैं।

और बस देवतागण अतिशय चिंतित हो उठते हैं। उन्हें लगता है, राम अब अयोध्या लौट सकते हैं। सबको राम के प्रेम में आप्लावित देखकर वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। सोच में पड़े देवराज इंद्र देवताओं को कुछ प्रपंच रचने का आदेश देने लगते हैं–

रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाज।।

(अयोध्याकाण्ड, 214)

[देवराज इंद्र चिंतातुर होकर देवताओं से कहने लगे—राम तो (भरत, वसिष्ठ, जनक, अयोध्यावासियों आदि के) स्नेह और संकोच के बंधन में बँधे हुए हैं। तुम लोग मिलकर कुछ प्रपंच रचो, नहीं तो काम बिगड़ जाएगा (राम अयोध्या लौट जाएंगे और सीताहरण, रावण-वध, राक्षस विनाश वगैरह धरा रह जाएगा)।]

किंतु अंत में राम का ही निर्णय सर्वोपरि और सभी के लिए स्वीकार्य सिद्ध हुआ—

दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देश काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन॥

(अयोध्याकाण्ड, 314)

[भरत के विनयार्त एवं निष्कपट वचनों को सुनकर, दीनबंधु, व्यवहार-प्रवीण श्रीराम देश, काल एवं अवसर के अनुरूप बोले‌‌–]

तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि, नृपहि घर बन की॥
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहिं तुम्हहिं सपनेहुँ न कलेसू।।
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु, सुजसु धरम परमारथु॥
पितु आयसु पालिहिं दोउ भाई। लोक बेद भल भूप भलाई।

(अयोध्याकाण्ड, 314: 1-2)

[भाई (भरत), तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की–सबकी चिंता गुरु वसिष्ठ और राजा जनक को है। जब हमारे सिर पर गुरु वसिष्ठ, मुनि विश्वामित्र और मिथिलापति जनक का साया है, तो मुझे और तुम्हें स्वप्न में भी कोई कष्ट नहीं हो सकता। मेरा और तुम्हारा परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ सब इसी में है कि हम दोनों (स्व.) पिता जी की आज्ञा का पालन करें। (स्व.) राजा के व्रत की रक्षा में ही लोकमत और वेदमत दोनों की भलाई है।]

++++++++

भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्ही। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥

(अयोध्याकाण्ड, 315: 1-2)

[इधर भरत का विनत प्रेम, उधर गुरुजनों, मंत्रियों एवं प्रजागण का आग्रह। राम संकोच और स्नेह से विवश हो गये। अंतत: उन्होंने अपना खड़ाऊँ उतारा और कृपापूर्वक भरत के हवाले कर दिया। और भरत ने उसे आदरपूर्वक सिर से लगाकर स्वीकार कर लिया। करुणानिधान राम के दोनों खड़ाऊँ जैसे प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए दो प्रहरी हों। भरत के प्रेमरूपी रत्न को सुरक्षित रखने के लिये संपुट हों। प्रजाजन के जीवन-यत्न के लिए राम-नाम के दो अक्षर हों।]

यह बीच का रास्ता है जिसमें भरत शासन करेंगे, जिससे राजा दशरथ के व्रत और उनकी आज्ञा का पालन होगा। किंतु वे राम के प्रतिनिधि के तौर पर शासन करेंगे, जिससे भरत, गुरु वसिष्ठ और अयोध्या की प्रजा की भावना का सम्मान होगा (रघुवंशियों का राज्य निरंकुश राजतंत्र नहीं था)।

और सबसे बड़ी बात रामावतार की लक्ष्य-पूर्ति का मार्ग खंडित नहीं होगा, जिसके लिए इंद्र-सहित देवगण चिंतातुर थे।

रावण को भी इसका एहसास हो गया था कि राम परब्रह्म परमात्मा के सगुण अवतार हैं और वे अधर्म के विनाश के लिए लीला कर रहे हैं—उसके सारे प्रयास, सारे आग्रह, सारे हठ राम के बाणों से मारे जाकर भवसागर से मुक्ति प्राप्त करने की ओर उन्मुख थे। लीला के भीतर लीला।

अरण्यकाण्ड की निम्नलिखित पाँच चौपाइयों की ओर लोगों का ध्यान कम जाता है—

सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं।
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥
सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तो मैं जाइ बैर हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ।।
होइहि भजन न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।

(अरण्यकाण्ड, 22:1-3)

[(शूर्पणखा की बातें सुनकर रावण मन में विचार करने लगा–) देव, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई भी नहीं जो मेरे अनुचरों तक का सामना कर सके। खर और दूषण (रावण के सौतेले भाई) तो मेरे ही समान बलवान थे। उन्हें भगवान्‌ के सिवा और कौन मार सकता है! यदि देवों को आनंदित करनेवाले और (पापों से) पृथ्वी का भार हरनेवाले भगवान्‌ ने अवतार ले लिया है, तो मैं जाकर हठात्‌ उनसे शत्रुता करता हूँ और प्रभु के बाणों के प्रहार से प्राण छोड़कर भवसागर पार कर लेता हूँ। मेरे इस तामस शरीर से भगवद्भजन तो होने से रहा। अत: मन, कर्म और वचन से अब इसी मार्ग का अनुसरण करता हूँ।]
………………………
(क्रमश:–छाया-सीता की निर्मिति से वाल्मीकीय रामायण के प्रक्षिप्त सीतानिर्वासन प्रसंग के परित्याग के लिए तुलसी की क़िलेबंदी)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *