समर प्रताप : SAM बहादुर.. युद्ध मे कोई महिला मिले तो आपके हाथ जेब मे होने चाहिए
SAMबहादुर जैसी फिल्में बड़े आराम से देखने की होती है फाइनली आज देख ली।एक बेहतरीन मूवी हमे मिस नही करनी चाहिए। मेरी जानकारियां गलत हो सकती है लेकिन मैं आपको खुश करने के लिये या वाहवाही के लिये गूगल पर जाकर पढ़ाई बिल्कुल नही करूँगा।
इसलिए भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष और पहले फील्डमार्शल जर्नल मानेकशॉ के बारे में आपको ज्यादा जानकारी लेनी है तो गूगल करे और उनके बारे में पढ़े,आप पढ़ते ही चले जाएंगे।
2nd वर्ल्ड वॉर में उन्हें शायद 7 गोली लगी थी और उनका जवान उन्हें 14 मील कंधे पर पैदल लेकर गया था।
डॉक्टर ने जब उनसे पूछा कि क्या हुआ तो उन्होंने कहा कि खच्चर ने लात मारी है।
1971 के युद्ध के समय वही सेनाध्यक्ष थे जिन्होंने भारतीय सेना को ये कहा था कि हम सैनिक है चोर या डकैत नही इसलिए युद्ध मे कोई महिला मिले तो आपके हाथ जेब मे होने चाहिए।
94 हजार पाकिस्तान के सैनिकों के आत्मसमर्पण और लाहौर तक कब्जा जमाए बैठी भारतीय सेना ने ऐसा कोई काम नही किया जिससे कोई उनके करेक्टर पर या वर्दी पर सवाल उठा सके।
आप पढ़िये उनके बारे में अच्छा लगेगा आपको।
आपको महसूस होगा कि हमारे देश मे हमारे रियल हीरो को तो हम जानते ही नही है।
पद्मविभूषण और महावीर चक्र प्राप्त जर्नल को कितने इंसान जानते होंगे।
2008 में उनका देहांत हुआ तो कितने आदमियो को पता चला होगा।लेकिन अमिताभ जी को दस्त भी लग जाये तो पूरी मीडिया और देश को पता लग जाता है।
इसलिए अपनी प्राथमिकता सेट कीजिए।हमे हीरो किन्हें मानना है।
मूवी की बात करी जाए तो विक्की कौशल ने रोल में जान डाल दी है।कैटरीना ने शादी के लिये हीरा चुना है।
मूवी हमे सिखाती है कि कैसे 1971 की लड़ाई जीतकर हम न केवल चीन की पराजय को भूलकर अपनी सेना को आत्मविश्वास से भर पाये बल्कि एक देशवासी के रूप में भी खुद को गौरव से भर पाए।
वैसा ही कुछ सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक करती है।
चाहे उस युद्ध के मुकाबले ये बहुत छोटी घटना हो।
मूवी में नेहरू जी,उस समय के रक्षामंत्री कृष्ण मेनन की गलतियों को दिखाया गया है।
उनकी कमज़ोर और कमियों को दर्शाया गया है।
Samबहादुर मूवी के रिव्यू में पेपर वाले और बहुत से लोग लिख रहे है कि मूवी में जर्नल के सामने नेहरू और इंद्रा जी को कमजोर क्यों दिखाया है?
कमजोर नही दिखाया है उस समय सेना पॉवरफुल होती थी।
इसका बड़ा कारण था उस समय के ऑफिसर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में थे।
और वहां सेना में राजनीति हस्तक्षेप नही करती थी।
नेहरू जी का तो कहना ही ये था कि हम गुटनिरपेक्ष है तो हमे सेना की जरूरत ही क्या है,और ऐसे ही उनके रक्षा मंत्री थे।हिंदी चीनी भाई भाई करते रहे और चीन ने भाईचारा निकाल दिया।
उस युद्ध से भारतीय सेना ने न केवल अपने सैनिक गंवाए बल्कि उनका मनोबल भी गिर गया था।
जर्नल मानेकशॉ जैसे लोगो ने सेना के मनोबल को उठाने में अहम भूमिका निभाई थी और वो डरते तो बिल्कुल नही थे।लगभग ऑफिसर वैसे होते थे।
इंद्रा जी का ये डर ही था कि उन्होंने किसी मार्शल कोम को जर्नल नही बनाने का निर्णय लिया था।
ऊपर से पाकिस्तान में भारत की सेना के मुकाबले कमजोर सेना तख्तापलट कर रही थी तो इंद्रा जी का डर भी वाजिब था।
आज के ऑफिसर जितना पॉवरफुल थे उतने तो उस समय के सूबेदार होते थे।
चंडीगढ़ का किस्सा सुना होगा आपने, पंजाब के मुख्यमंत्री के रिलेशन वाले सेना के ब्रिगेडियर की फैमली को थियेटर में छेड़ देते है।
तो ब्रिगेडियर उन्हें घसीटते हुवे केंट में उठवा देते है।
इसकी जिम्मेदारी एक कर्नल साहब को मिली थी और अहम रोल अदा करने वाले रिसालदार हरनारायण सिंह थे।
वे भी 2nd वर्ल्ड वार में लड़े थे और मैं सौभाग्य शाली हूं कि वे मेरे दादा जी थे।
उस केस को जब लोकसभा में उठाया गया तो वहां सीधा यही बोला गया कि सेना का मामला है उनसे मिलकर सुलझाएं।
तब मुख्यमंत्री और उनके रिश्ते वाले ने माफी मांगी और उन्हें छोड़ा गया।
ऐसे किस्से उस समय की सेना में भरे पड़े है।
सेना सीधा बोलती थी जब हम अपने सैनिक,उसके परिवार और अपनी वर्दी की इज़्ज़त नही बचा सकते तो देश की क्या रक्षा करेगे।
इसलिए बहुत बार सैनिक झगड़े होने पर गांव में मारकाट के यूनिट में आ जाते थे और अधिकारी उनके लिये लड़ते थे।
किसी पुलिस फोर्स की हिम्मत नही होती थी कि सेना को छेड़े।
लेकिन धीरे धीरे अधिकारियों के अधिकार काटे गए।
सिविल से उनके acr रिलेटिड किये गए।
और कुछ अधिकारी ऐसे आ गए कि उन्हें बस अपनी नौकरी की परवाह है।सबको जर्नल बनना है इसलिए लेफ्टीनेंट से गुलामी शुरू कर देते है।
पहले के अधिकारी न केवल ज्यादा फिट,मेहनती,अकड़ू और सेना को चाहने वाले थे बल्कि सैनिकों के लिये भी लड़ने वाले थे।
इसलिए पुराने अधिकारी मेजर,कर्नल ही बड़ी मुश्किल से बनते थे।कर्नल मतलब अनुभव कमांडिंग ऑफिसर आधा भारत और फील्ड एरिया छानकर बनते थे।
आजकल 13 से 15 साल में बन जाते है।
और सेना और सैनिक की तो क्या ही हिफाजत करेंगे बस अपनी नोकरी की ही करते है।
बहुत फर्क है बहुत।
वो सेना ही अलग थी।
सेना के नाम से जीने वाले लोग थे।तनख्वाह और पद के लिये नही।
आजकल तो हर रोज पेंशन के लिये सड़को पर बैठे रहते है।और फिर इन्हें फूल इज़्ज़त चाहिए।
सेना को रोजगार और भत्ते की जगह बना दिया है।।
साभार – समर प्रताप।