“ऐ पुलिसवालों….ऐ पुलिस…”
“ऐ पुलिसवालों….ऐ पुलिस…ऐ पुलिस….ऐ पुलिसवालों।” शब्दों की की गरिमा को पार करते हुए अनुशासन की डोर से बंधी पुलिस सार्वजनिक मंच से ये सब सुनकर भी अपनी पीड़ा और आक्रोश व्याप्त नहीं कर सकती।
सेना और पुलिस दोनों का ही कार्यक्षेत्र आमजन की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है लेकिन दोनों के काम में तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो बहुत बड़ा अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। सेना के सामने दुश्मन आ जाए तो सीधा एक टारगेट होता है “मरो या मारो” इसमें कोई दबाव काम नहीं करता सीधे फायर। ठीक इसके विपरीत परिस्थितियां पुलिस की नौकरी में होती है। एक प्रार्थी को लेकर अनेक किस्म की दुविधाएं सामने होती है.. निष्पक्षता भी देखनी है.. राजनीतिक दबाव भी देखना है.. ऊपर का दबाव भी झेलना है और काम भी सही करके देना है पुलिस इस अव्यवस्था के बीच कितने मानसिक दबाव में रहती है इसको व्यक्त नहीं किया जा सकता।
ठेले वाले, सब्जी वाले, दुकानदार अगर निश्चिंत भाव से दुकान में बैठकर व्यापार करते हैं तो इसका कारण है सिर्फ और सिर्फ..पुलिस। कानून के डंडे का भय न हो तो कोई भी दम दिखाकर किसी की सब्जी, फल, कपड़े, मोबाइल लूटकर चलता बनें।
शराब के तथाकथित नशे में पूरे का पूरा मोहल्ला हिला देने वाला भीमकाय शराबी भी जड़ हो जाता है.. मुख से गालियों की बौछार के स्थान पर पूरे सम्मान के साथ निकलता है “साहब नमस्ते” …जब उसके सामने डंडा थामे सामान्य सिपाही सामने खड़ा होता है..सारा नशा फट जाता है। पुलिस अच्छी-बुरी दोनों होती है लेकिन लोग पुलिस के मात्र नकारात्मक पक्ष को ही लेकर चलते हैं, जिसे सही नहीं कहा जा सकता।
वरिष्ठ पत्रकार गेंदलाल शुक्ल कहतें हैं -“दीवाली, होली कोई भी पर्व हो आप जब अपने परिवार के साथ मिलकर मना रहे होतें हैं तो ये आपकी सुरक्षा में अपने घर-परिवार से दूर ड्यूटी बजा रहे होते हैं। पुलिस व्यवस्था को चाहे कितना कोसिए, ये आदिकालीन व्यवस्था है। इनके बिना समाज निर्भीक नहीं हो सकता। पुलिस अपना स्वरूप बदलने का लगातार प्रयास भी करती है। कई अधिकारी हुए हैं जिन्होंने पुलिस पब्लिक के मध्य सुसंवाद स्थापित करने की दिशा में अनेक काम किए और सकारात्मक परिणाम भी सामने आया है।”
कोरोना काल में पुलिस की भूमिका को याद कीजिए कि कैसे मौत के मुहाने पर खड़े होकर अपनी जान पर खेलकर उन्होंने अपनी ड्यूटी निभाई। पुलिस हड़ताल भी नहीं कर सकती और कई बार तो ऐसी भी स्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ता है जब अपने घर की खुशियों की बात तो दूर है.. परिवार के दुख की घड़ियों में भी वे दूर कही ड्यूटी बजा रहे होते हैं।
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लेखक सर्वेश तिवारी श्रीमुख पुलिस व्यवस्था को लेकर लिखतें हैं – “46 डिग्री तापमान के साथ कड़कती दोपहर में जब हम अपने ऑफिस की लाइट कटने के तीसरे सेकेंड में ही नीतीश से ले कर मोदी तक को कोसना शुरू कर देते हैं, तब वे धूप में खड़े रहते हैं। हमारे लिए, हम सबके लिए…

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