वेदों में शत्रुनाशक सूक्त.. यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु…

ॐ अभय कीजिये..

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। 

शं नः कुरु प्रजाभ्यो अभयं नः पशुभ्यः।। 

                             – यजुर्वेद ३६.२२।

हे परमपिता अपने ओज, शौर्य,दर्शन-श्रवण-परिपालन,रिपु विनाशक तेज की कृपा मुझपर कर निर्भय कीजिये।

हे परमेश्वर! आप जिस-जिस देश से जगत् के रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं, उस-उस देश से हमको भय से रहित करिए, अर्थात् किसी देश (स्थान) से हमको किञ्चित् भी भय न हो, वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उनसे भी हमको भयरहित करें तथा हमसे उनको सुख हो, और उनको भी हम से भय न हो तथा आपकी प्रजा में जो मनुष्य और पशुआदि हैं, उन सबसे जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं, उनको आपके अनुग्रह से हमलोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्य जन्म के धर्मादि जो फल हैं, वे सुख से सिद्ध हों।। – ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका।

प्रत्यक्ष देव सूर्यदेव को वेदों में जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे।

सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने “चक्षो सूर्यो जायत” कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है।

छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से यश,बल,उत्साह, शुभ कार्यो में सफलता प्राप्ति का लाभ बताया गया है।

ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है।

प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है।

पृथ्वी को सूर्य से न केवल प्रकाश मिलता है। बल्कि ग्रह रूपी पृथ्वी को सूर्य से गति और जड़त्व दोनों ही प्राप्त होते हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण तब देखने को मिलता है। जब ग्रहण की स्थिति निर्मित होती है। सूर्य ग्रहण के समय पृथ्वी की और चन्द्र ग्रहण के समय चंद्रमा की गति धीमी पड़ जाती है। यही स्थिति कृत्रिम उपग्रह की गति के साथ भी देखने को मिलती है। इन पिंडों की नियमित गति के लिए सूर्य का प्रकाश अति-आवश्यक है। कहने का तात्पर्य सूर्य का प्रकाश, सौर-मंडल के प्रत्येक सदस्य की निर्पेक्षीय गति को निर्देशित करता है।

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