कौशल सिखौला : एक ओर 2047 तक विकसित भारत तो दूसरी ओर मात्र जातिगत जनगणना, अडानी को कोसने की बात

दिक्कत केवल विचारधारा की है । कुछ लोग देश का कर्णधार तो बनना चाहते हैं , पर सोनिया , लालू , मुलायम , खड़गे , जयराम रमेश , दिग्विजय सिंह और सुरजेवाला की मानसिकता में खोए रहना चाहते हैं । आश्चर्य की बात है की ममता का मार्क्सवाद से कोई लेना देना नहीं । लेकिन उनके जहन में ज्योतिर्बासु , इंदिरा दरबार के सिद्धार्थ शंकर राय और बरुआ के जमाने की मानसिकता चल रही है।

दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जिनका लक्ष्य 2047 का भारत बनाने का है । ये लोग आजादी के सौवें साल में विकसित भारत , तीसरे स्थान की अर्थव्यवस्था और 5 से भी बढ़कर 10 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी की तैयारी कर रहे है । ये लोग कोरे सपने नहीं देख रहे , उस दिशा में तेज गति से काम कर रहे हैं । अभी तक अपना विश्वास कायम रखने में ये लोग खासे सफल भी रहे हैं।

मतलब राजनीति में कुछ लोग अभी भी लालू और मुलायम युग की वापसी के ख्वाब सजा रहे हैं । ये लोग एक कदम भी आगे बढ़ाने के बजाय 80/90 के दशक का भारत चाहते हैं । सबसे बढ़कर राहुल जैसे लोग ? वे एक तरफ देश की स्पीड में योगदान देने वाले अंबानी अडानी के पीछे पड़े रहने वाले राहुल हैं । उनकी सोच इतनी घटिया है कि प्रगति के रास्तों को ठुकराकर जाति जनगणना के पिछड़े आधार खोजने में उन्हें मजा आता है । सत्ता की भूख इसकदर कि फारूख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को खुश करने के लिए सत्ता मिलते ही 370 की वापसी पर तालियां पीटते लगते हैं । न तो उनके और न उनकी बहन के पास कोई नई सोच या नया सपना है और न ही एक भी योजना । देश को कुछ भी नया देने के बजाय उनका मकसद सत्ता पाना है , केवल सत्ता ?

राजनीति से लोगों का भरोसा उठ गया था । स्वार्थ की राजनीति ने राजनीति को पेट भरने का माध्यम बना दिया था । सीधा सा फंडा था – खाओ और खाने दो ।यह फंडा इतना जबरदस्त था कि दस साल पहले जब रोटी पलटी तो नई सत्ता को कहना पड़ा – न खाऊंगा न खाने दूंगा । जनता पर असर हुआ तो चलते चले बात गारंटियों पर आ गई । अब तक राजनीति ने वादे तो लिए थे परंतु गारंटी कभी नहीं दी थी । जाहिर है जब देश का प्रधानमंत्री अपने नाम की गारंटी देगा तो बात भरोसेमंद हो जाएगी।

उनके नाम वाली गारंटियों पर लोगों को भरोसा हुआ तो ही गया । अब देखिए सभी गारंटियाँ देने लगे हैं । देखना है कि जो आजमाए जा चुके हैं उनकी गारंटियां चलेंगी या फिर जनता उनकी गारंटियों पर भरोसा करेगी जो खाऊँगा और खाने दूंगा का फंडा लेकर राजनीति में आए थे ? आश्चर्य की बात है कि जिन लोगों ने बार बार देश के संविधान का गला घोंटा , उन्हें अब संविधान समाप्त होने का डर सता रहा है ? निश्चय ही आने वाला चुनाव दिलचस्प है , दिल थामकर देखते जाइए ?

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