डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : वंशानुगत जातियों को ही वर्ण मानकर कुत्सित राजनीति करने वाले लोग…
वर्ण एक सनातन अवधारणा है, लेकिन उसे एक व्यवस्था के रूप में परिवर्तित कर देना यह वैदिक ऋषियों की दिव्य दृष्टि एवं समाज के गंभीर अनुसंधान का परिणाम था।
जाति और वर्ण में बहुत बड़ा अंतर है। जाति मनुष्यों के अनुवांशिक क्रम का निर्धारण करती है जबकि वर्ण उनके गुण और कर्म का निर्धारण करते हैं।
ऐसा कभी नहीं हुआ होगा कि कोई एक विराट पुरुष खड़ा हो गया होगा और उसके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैर से शूद्र कीड़ों की तरह निकलने लगे होंगे, जिसका प्रत्यक्षीकरण वैदिक ऋषि ने इस मंत्र के माध्यम से किया होगा-
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्
बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः
पद्भ्याम् शूद्रौ अजायत।।
परन्तु युक्तिसंगत यथार्थ तो यह है कि वैदिक ऋषि ने जब ध्यानस्थ होकर समाज का दर्शन किया होगा तब उसे विराट पुरुष का साक्षात्कार हुआ।
इस समाज का उसने सहस्रों सिर, सहस्र अक्ष यानी नेत्र और पैर वाले पुरुषाकृति रूप में प्रत्यक्षीकृत किया। उस एक पुरुष के अंदर दिखाई पड़ने वाले चार तत्व विचार, पौरुष, भोग और कर्म के रूप में विराट पुरुष में कार्य करने वाले चार प्रकार के लोग दिखाई दिए। पुरुष में विचार का कार्य मस्तिष्क करता और मुख से उसे प्रकट करता है ऐसे कर्म करने वालों को ऋषि ने ब्राह्मण कहा, इसलिए जो विचार प्रधान नहीं है वह ब्राह्मण नहीं हो सकता। पुरुष में पौरुष और शौर्य के द्वारा जो कार्य बाहु द्वारा किया जाता है विराट पुरुष में अपने पौरुष से समाज का रक्षण करने वालों को क्षत्रिय कहा गया। पुरुष के कटि भाग में पाचन आदि का कार्य कर शरीर का पोषण होता है, उसी प्रकार विराट पुरुष का उत्पदान और व्यापार से पोषण करने वाले वैश्य कहे गये। इन सब का आधार व्यक्ति का श्रम होता और व्यक्ति के श्रम का मूलाधार पैर है उसी प्रकार विराट पुरुष के श्रम के जो मूलाधार थे उन्हें शूद्र कहा गया।
प्राथमिक अवस्था में वर्ण का जातियों से कोई लेना-देना नहीं था। वर्ण का निर्धारण शुद्ध रूप से गुण और कर्म के आधार पर होता था। जो मनुष्य में उत्पन्न ईश्वर प्रदत्त गुण था उसके आधार पर वर्ण प्रकट हुए, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है-चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
ऋषि परम्परा के तिरोभाव के साथ गुण-कर्म के आधार पर व्यक्ति के वर्ण निर्धारण परम्परा का लोप हो गया और वंशानुगत व्यवसाय के आधार पर जातियों का आविर्भाव हुआ।
यह आश्चर्य का विषय है कि उस कालखण्ड में जब पृथ्वी के अन्य भाग के मानव जंगलों में पशुवत विचरण करते थे तब हमारे ऋषि समाज और मनुष्य के गुण,कर्म और स्वभाव का इतना सूक्ष्म अध्ययन कर वर्णों का निर्धारण कर दिया करते थे। आज भी चार प्रकार के लोग समाज में उत्पन्न होते हैं लेकिन उनके वर्ण का निर्धारण करने वाले ऋषि नहीं हैं, बल्कि वंशानुगत जातियों को ही वर्ण मानकर कुत्सित राजनीति करने वाले लोग खड़े हो गये हैं।
– डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह