कमलकांत त्रिपाठी : याद हो कि न याद हो..सनातनी आस्था और भौतिकवादी अनास्था…

याद हो कि न याद हो:

सनातनी आस्था और भौतिकवादी अनास्था (तिवारी जी से बातचीत)

तिवारी जी संकल्प सत्ता और आरोपित भाव को सनातन धर्म का सार कहते थे. कहते थे, यदि हमारा संकल्प दृढ़ हो, तो वस्तु जगत उसके अनुरूप ढलने लगता है:

एक–पत्थर की मूर्ति में भक्त ईश्वर को आरोपित करता है, तो उसके भाव-जगत में वह मूर्ति ईश्वर हो जाती है. तब उसे वैसा ही फल मिलता है जैसा ईश्वर की आराधना से मिलता.

दो‌–गुरु जैसा भी हो, कितना भी दुर्जन, अधम क्यों न हो, शिष्य उसे जिस भाव से देखता है, उसी के अनुरूप उसे ज्ञान प्राप्त होता है. इसीलिए बहुत साधारण गुरुओं के सहारे क्षमतावान शिष्य अपने दृढ़ संकल्प-भाव के चलते अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेता है. यही नहीं, दुनियावी व्यवहार में भी, यदि दुष्ट पर भी विश्वास किया जाए और उसे मित्र-भाव से देखा जाए तो वह हमारे लिए वैसा ही आचरण करेगा, या करता हुआ प्रतीत होगा, दुनिया के लिए वह चाहे जैसा हो.

तीन–विश्वास का फल मिलता है, इसीलिए सनातनधर्मी सभी धर्मों को ठीक मानता है, उन्हें एक ही लक्ष्य तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग समझता है. जहाँ भी, जिसका विश्वास दृढ़ है, वहीं उसके विश्वास का उसे फल मिलेगा और उसका लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा, इसलिए धर्म-परिवर्तन अनावश्यक है.

चार–किसी प्राणी को दु:ख पहुँचाए बिना कोई भी पूजा-पद्धति अपनाने से आदमी का निस्तार हो सकता है. तैंतीस करोड़ देवता हैं तो क्या हुआ, किसी भी देवता की पूजा ईश्वर की ही पूजा है, क्योंकि ईश्वर तो समस्त सृष्टि का कर्ता और नियंता है और समस्त सृष्टि में व्याप्त है, तो जिस भी देवता के सहारे आगे बढ़ो, पहुँचना तो एक ही गंतव्य तक है, हर देवता ईश्वर की भिन्न-भिन्न शक्तियों का प्रतीक है, इसलिए पूर्ण तक पहुँचने के लिए अंश का सहारा लिया जाता है.

पाँच–चूँकि विश्वास का फल मिलता है, इसलिए कई-कई परस्पर-विरोधी बातें भी सही हो सकतीं है. जो परलोक और स्वर्ग-नर्क मानते हैं, उनके लिए वह सही है, जो नहीं मानते, उनके लिए नहीं सही है. जो पुनर्जन्म मानते हैं, उसके लिए पुनर्जन्म होता है, जो नहीं मानते, उनके लिए नहीं होता. जो क़यामत और फ़ैसले का दिन मानते हैं, उनके लिए वह होता है, जो नहीं मानते, उनके लिए नहीं होता.

तिवारी जी कहते थे, यदि आदमी के भीतर शिद्दत से यह सवाल उठ जाए कि वह कहाँ से आया है तो इस सवाल से सवाल निकलता जाएगा और सवाल करनेवाला अंतत: ईश्वर तक पहुँचकर ही संतुष्ट होगा. बुद्धि का एक गुण यह भी है कि वह सवाल बहुत पूछती है. ईश्वर तक पहुँचकर ही वह शांत होती है. तब बुद्धि तिरोहित हो जाती है और सर्वत्र ईश्वर की सत्ता ही नज़र आती है. जब तक वहाँ नहीं पहुँचती, सवाल पर सवाल उठाती रहती है.

भौतिकवादी का प्रत्याख्यान

1. यह तो पूर्ण अराजकता है, जहाँ सब कुछ सही है, जब कि सही तो एक ही हो सकता है.

2. यदि कुछ है तो वह मनोवैज्ञानिक तत्व है, जिसे मनोविज्ञान में auto suggestion कहते हैंं, जिसका मनोवैज्ञानिक इलाज में भी इस्तेमाल होता है.

3. चलिए, मान लिया जाय कि सभी धर्म अपनी-अपनी जगह ठीक हैं और सभी धर्मों को माननेवालों को उनके संकल्प के अनुसार फल मिल जाता है. लेकिन यह तो आप मानते हैं. यदि कोई एक (जीवंत–monotheistic) ईश्वर, एक पैग़म्बर और एक किताबवाला मिल गया, तो वह तो कहेगा यह सब बकवास है, जो कुछ सत्य है वह इस किताब में दर्ज है, जो पैग़म्बर की मार्फ़त प्राप्त हुई ईश्वर की वाणी है, इसके अलावा सब कुफ़्र है , blasphemy है, sacrilege है, यह कहना भी कुफ़्र है कि सभी धर्म ठीक हैं. तब तो आपकी बात से काम नहीं चलेगा.

4. मैं कहाँ से आया–यह सवाल तो चेतना से उठता है, जो भौतिक पदार्थों के एक निश्चित विन्यास से पैदा होती है, और मृत्यु के समय उस विन्यास के बिखर जाने से ख़त्म हो जाती है. और सबकी चेतना जीन्स और भौतिक परिवेश के प्रभाव से अलग-अलग होती है, सबका स्रोत एक कैसे हो सकता है ! तब तो हत्यारे की चेतना और हमारी चेतना में मूलत: कोई फ़र्क ही नहीं रह जाएगा.

5. यदि मान भी लिया जाए कि ईश्वर है तो उसको वाहियात लोगों से भरी हुई ऐसी वाहियात दुनिया बनाने की क्या ज़रूरत थी ?

तिवारी जी–देखो, कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो बुद्धि के सहारे समझ में नहीं आता. तब अपने-आप ईश्वर में विश्वास उत्पन्न हो जाता है.

भौतिकवादी–चमत्कार ! तो हर आदमी को अपने जीवन में कोई चमत्कार होने का इंतज़ार करना पड़ेगा, क्योंकि दूसरे के जीवन में हुए चमत्कार से तो उसे कुछ हासिल होनेवाला नहीं। फिर ईश्वर में विश्वास उत्पन्न होना या न होना अपने-आप में मूल्य कैसे हो सकता है ? सवाल मूल्य का नहीं, सत्ता के अस्तित्व का है–क्या है, क्या नहीं।

तिवारी जी हँसे और बोले–यह भी ठीक है.

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