डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : कोई भी पूर्ण रूप से नास्तिक नहीं होता..
दुनिया में कोई भी व्यक्ति पूर्ण नास्तिक न हुआ है न हो सकता है। नास्तिकता का अभिप्राय मात्र ईश्वर की सत्ता का निषेध नहीं है। नास्तिकता तो तब पूर्ण होती है जब स्वयं की सत्ता का निषेध कर दिया जाए।
वैदिक ऋषियों ने तो स्वयं में ब्रह्म का दर्शन कर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का उद्घोष किया। परमात्म सत्ता स्वयं में ही विद्यमान है और वह सत्ता अद्वितीय है। उसके अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं है, इसलिए तुम भी वही हो ‘तत्वमसि’।
क्या कोई नास्तिक कभी अपनी सत्ता का निषेध कर सकता है? अहम् अस्मि से यदि अहं का निषेध कर दिया जाए तब भी होने की अनुभूति बनी रहेगी। कौन हूँ, कैसा हूँ, कब हूँ इसकी अनुभूति भले ही समाप्त हो जाए लेकिन ‘हूँ’ यह अनुभूति कभी नहीं समाप्त हो सकती। प्रत्येक न (निषेध) के पश्चात् भी जो अस्ति (है) बचता है वही सत्ता है जिसका हम चाह कर भी निषेध नहीं कर सकते, क्योंकि जो निषेध कर रहा है वह तो सदैव रहेगा।
इसलिए एक घोर नास्तिक भी अपने निषेध के पीछे एक आस्तिक है। वह न पर केन्द्रित है लेकिन अस्ति को नहीं समझ पा रहा है, क्योंकि वह निषेध भी पूरा नहीं करना चाहता। उसके निषेध का धरातल केवल भौतिक है जिस दिन वह भौतिक धरातल से ऊपर उठकर निषेध करेगा उसे स्वतः अस्ति का भान हो जाएगा। पूर्ण निषेध के पश्चात् जिस सत्ता का बोध होता है वही सनातन है।
साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह