देवांशु झा : विश्वकप किरकिट

क्रिकेट के विश्वकप में वेस्टइंडीज और आस्ट्रेलिया के अतिरिक्त किसी अन्य देश का प्रभुत्व कभी नहीं रहा। जब मैं प्रभुत्व कहता हूॅं तो उस शब्द को वृहत्तर अर्थ में समझना होगा। सत्तर के दशक में वेस्टइंडीज की दुर्धर्ष टीम का दबदबा था।

यों,अस्सी के दशक में भी उनका प्रभुत्व कायम रहा। परन्तु भाग्य ने भारत का साथ दिया। अस्सी के उत्तरार्ध तक आते-आते विश्व क्रिकेट में उनकी ढलान होने लगी थी। वह ढलान दशक भर से अधिक लंबी चली। वेस्टइंडीज लड़ता भिड़ता उतरता चला गया। यही समय आस्ट्रेलिया के उत्कर्ष का था। फिर आस्ट्रेलियाई लंबे समय तक छाये रहे। इन दोनों टीमों के अतिरिक्त किसी अन्य देश का दबदबा कभी न रहा। भारत दो बार विजेता होकर भी प्रभुता स्थापित करने से चूकता रहा। विश्वकप में भारत को dominant फोर्स कभी नहीं कहा जा सकता। संभावित विजेता वह अवश्य रहा।

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संभवतः यह पहला ऐसा विश्वकप है, जिसमें बड़ा उलटफेर संभव है। कुछ अप्रत्याशित सा। जिन टीमों को हम बिलकुल गंभीरता से नहीं लेते वही टीमें स्थापित टीमों को हरा रही हैं। आस्ट्रेलिया अब पहले जैसी स्थिति में नहीं है। रिकी पॉन्टिंग वाली टीम प्रबल थी। विकट गेंदबाज और विस्फोटक बल्लेबाज थे। वह सर्वोत्तम, संतुलित टीम थी। आज आस्ट्रेलियाई खेमे में न तो वैसी प्रभा है, न जीत की वह अग्नि।वह एक डिमोटिवेटेड टीम दिखाई पड़ती है। लेकिन उसमें रोबोटिक्स भी सबसे अधिक है। यानी वह प्रोग्राम की हुई शैली में खेलने वाला दल है। जिसे आप प्रोफेश्नलिज्म कहते हैं। भारत इस समय अच्छी दशा में नजर आता है। घरेलू मैदान पर खेलने का अपना लाभ है। बल्ला और गेंद दोनों से बढ़िया स्थिति में है। लंबे समय से खराब फार्म से जूझ रहे दो तीन बड़े बल्लेबाज लय में लौट आए हैं।गेंदबाजी में स्पिन और फास्ट के बीच का संतुलन भी अच्छा है।

इस बार भारत अगर विजेता बनता है तो विश्वकप में प्रभुता स्थापित करने वाली टीम के रूप में उसे शामिल किया जाएगा। तीन ट्राॅफियों के साथ वह आस्ट्रेलिया के बाद दूसरे नंबर का विजेता देश हो जाएगा–जो कि उसे होना भी चाहिए। आने वाले समय में क्रिकेट की वैश्विक स्थिति रुचिकर हो सकती है। यह संभव है कि कुछ पुछल्ले समझे जाने वाले देश चमत्कारिक रूप से उठ जाएं। हालांकि मेरा स्पष्ट मत है कि वे यदा-कदा ही चौंका पाने की योग्यता अर्जित कर पाएंगे क्योंकि क्रिकेट में टीम को बनाना एक कठिन काम है। वह व्यक्तिगत उपलब्धियों का खेल नहीं है। और टीमें एक सातत्य में बनती हैं। दो चार बड़े खिलाड़ियों का आदर्श स्थापित होता है तो संस्कृति पनपने लगती है। तभी बड़ी टीम का बनना सम्भव होता है। बांग्लादेश का उदाहरण बेहतर होगा। वह आज भी चौंका देने की स्थिति में ही है। उससे ऊपर नहीं उठ सका है। क्योंकि उसके पास विश्व क्रिकेट के जायंट नहीं हैं। अच्छे और प्रतिभाशाली खिलाड़ी हैं, चैंपियन नहीं हैं।

नीदरलैंड्स और अफगानिस्तान को अभी लंबा रास्ता तय करना होगा। वे चौंका तो सकते हैं लेकिन चैंपियन नहीं बन सकते। यह संभव है कि आने वाले वर्षों में उनका अभ्युदय हो। और यह भी सहज संभाव्य है कि वे बांग्लादेश जैसी स्थिति के साथ बरसों तक घिसटते रहें। चैंपियन टीम की संस्कृति बनाने में समय लगता है।

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