ॐ पर वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक तिवारी..पवित्र शब्द की शक्ति को कम प्रभावी बताना कदापि उचित नहीं..मात्र सुर्खियाँ बटोरने और अपने नेता को खुश करने की नियत से राजनीतिक उद्देश्य से…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान को स्वीकार कर संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2015 में 21 जून को योग दिवस स्वीकार किया था। आज जब पूरी दुनिया 7वां योग दिवस मना रही है, तब योग में ॐ के उच्चारण को लेकर कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी के एक कथन ने बेवजह का विवाद खड़ा कर दिया है, जिस पर लोग उस बयान पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
इसी परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत है ॐ की महत्ता व बयान के पीछे की मानसिकता को उजागर करता हुआ वरिष्ठ अधिवक्ता व स्टेट बार काउंसिल, छत्तीसगढ़ के सदस्य अशोक तिवारी (+91 94252 24143) का एक बेबाक अग्रलेख।
ऊँ,ऊँकार ब्रह्म है। स्वयं में पूर्ण वाक्य है ।
सनातन धर्म एक है और उससे किसी की तुलना नहीं की जा सकती है ।
तीन खण्ड में विभाजित कर ऊँ का नाद होता है जिसे ब्रह्मनाद कहते हैं ।
पहले ओ,फिर न् ,उसके बाद म ।

भारत की प्राचीन समृद्ध संस्कृति और सभ्यता की देन योग महज शारीरिक क्रिया नहीं है बल्कि एक साधना है जो आत्मा को परमात्मा और मनुष्य को प्रकृति के साथ जोड़कर एक संतुलित वातावरण और शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण का मार्ग दिखाती है।
इसका सही मुद्रा में आंखे बन्द करके श्रद्धाभाव के साथ नाद करना अत्यंत उर्जादायी और शांति प्रदान करते हुए विश्रामदायक होता है ।
शरीर के अंदर जितने भी रक्तवाहिनी हैं,सभी इस पवित्र उच्चारण से गतिशील और स्वस्थ होकर दीर्घायु हो जाती हैं ।
ऊँ शरीर की रचना के अनुसार एकाकार करने वाला शक्तिशाली घोष भी है ।
ऊँ के अनुपात में अन्य किसी भी शब्द का उपयोग कदापि योग प्राणायाम के पूर्ण लाभ की चाह रखने वाले को लाभान्वित नही कर सकता है ।
सिंघवी जी के शब्द या विचार व्यावहारिक नही,मात्र सुर्खियाँ बटोरने और अपने नेता को खुश करने की नियत से राजनीतिक उद्देश्य से दिया गया एक बहुसंख्यक समाज का और उनकी आस्था का मजाक उड़ाने के साथ ही अपमानित करने वाला घोर निंदनीय बयान है ।दूसरे धर्म के किसी शब्द के बारे में कहना तो दूर सोच भी नहीं सकते, तो ये सहिष्णु धर्म के पवित्र शब्द “ऊँ ” को न्यून बताने या कम प्रभावी बताने का साहस कैसे कर सकते हैं?
योग मानव समाज के लिए जीवन दायी है,जिसे जैसे करना हो करे लेकिन हमारे पवित्र शब्द की शक्ति को कम प्रभावी बताना कदापि उचित नहीं ।
चक्रवर्ती राजा भरत द्वारा सम्पूर्ण आर्यावर्त को अपने अधीन कर “भारतवर्ष” नाम दिया गया था । वह हमारा भारतवर्ष एक हिन्दू राष्ट्र है और यहाँ रहने वाले सभी हिन्दू ही हैं, भले ही कालान्तर में विस्तारवादी धर्म के प्रलोभन या दबाव में उसको अपनाकर कुछ लोग अलग पूजा पद्धति के अनुसार आज रह रहे हों ।
यह सनातन धर्म की सहजता,विनम्रता,सहिष्णुता का ही परिचायक है ।
