दयानंद पांडेय : अपने-अपने युद्ध.. क़ानून की भाषा में चेतावनी भी सज़ा है…

उन्हीं दिनों एक फिल्म आई थी जिस्म। जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु अभिनीत इस फिल्म में एक गाना तब खूब हिट हुआ था , जादू है , नशा है / मदहोशियां हैं । जितना मादक गीत था , उस से भी ज़्यादा मादक दृश्य था । उन दिनों इस फिल्म का प्रोमो विभिन्न टी वी चैनलों पर चलता था जिस में समुद्र किनारे लहरों पर खेलते हुए जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु दिखते। जादू है नशा है गीत पर बिपाशा समुद्र किनारे लेटे हुए जॉन के ऊपर आक्रामक सेक्सी अंदाज़ में बैठ जाती थीं।

जनवाणी प्रकाशन के अरुण शर्मा हर तारीख पर दिल्ली से लखनऊ आते। होटल में बैठे-बैठे जब यह जादू है नशा है / मदहोशियां हैं , का दृश्य टी वी पर देखते तो कुछ खीझते , कुछ मुस्कुराते हुए बोलते , यह युद्ध तो सरे आम चल रहा है। इस युद्ध पर कोई मुकदमा नहीं कर रहा। आप के अपने-अपने युद्ध पर ही मुकदमा होना था ? अरुण शर्मा से भी ज़्यादा मुश्किल थी लखनऊ के यूनिवर्सल बुक डिपो , हज़रतगंज के प्रोप्राइटर भी इस मुकदमे में घसीट लिए गए थे। क्यों कि यूनिवर्सल बुक डिपो पर अपने-अपने युद्ध बिक रहा था। तो यूनिवर्सल के खिलाफ भी कंटेम्प्ट का मुकदमा हो गया था। लेकिन उन के एक रिश्तेदार हाई कोर्ट में बड़े वकील थे। सो वह निश्चिंत थे और मुझे हौसला बंधाते रहते। कहते हम आप के साथ हैं , डोंट वरी।

एक दिन सुबह-सुबह आई बी सिंह का फोन आया। मैं सोया हुआ ही था। वह बोले , ‘ बधाई कि आप जेल जाने से बच गए।’

‘ हुआ क्या ? ‘ मैं ने पूछा तो वह बोले , ‘ जस्टिस आशीष नारायण त्रिवेदी का आज सुबह पी जी आई में निधन हो गया है। ‘

‘ यह क्या बात हुई भला ?’ मैं ने कहा , ‘ यह तो सेलिब्रेशन का विषय नहीं है। मेरे भी जानने वाले थे वह। ‘

‘ ठीक है , मेरे भी दोस्त थे। किडनी प्रॉब्लम थी उन्हें। मरना तो था ही। पर आप के मामले पर फैसला देने से पहले मर गए तो आप बच गए। नहीं यह तो आप को जेल भेजते ज़रूर। भले एक दिन के लिए। क्यों कि यह क़ानून जानते थे और किसी से डरते नहीं थे। ‘ वह बोले , ‘ अब आप को कोई जज जेल नहीं भेज सकता। निश्चिंत हो कर सो जाइए। क्यों कि अभी इलाहाबाद हाई कोर्ट में क़ानून जानने वाला कोई निडर जस्टिस नहीं है आज की तारीख में। सब साले डरपोक हैं। और क़ानून से इन की भेंट ही नहीं है। ‘

आई बी सिंह सच ही कह रहे थे। अब सूरतेहाल यह थी कि मेरा यह कंटेम्प्ट का मुकदमा सुनने से लखनऊ बेंच में मौजूद सभी जस्टिस लोगों ने इंकार कर दिया था। अंतत: अब मेरा यह कंटेम्प्ट का मुकदमा चीफ़ जस्टिस को रेफर हो गया। अब चीफ़ जस्टिस बैठते हैं इलाहाबाद में। कभी-कभार लखनऊ कोई ख़ास मामला सुनने आ जाते हैं। महीने , दो महीने में एक बार। तो जैसा कि मैं ने अपने-अपने युद्ध में लिखा था और कि मिश्रा जी ने कहा था , उस के मुताबिक मेरा कंटेम्प्ट का मुकदमा पहले काऊंटर , रिज्वाइंडर की नौटंकी में खिंचा फिर तारीखबाजी में और अंततः चीफ़ जस्टिस की आमद में। एक दिन मिश्रा जी हंसते हुए बोले , ‘ आप का यह मुकदमा तो अब ढक्कन हो गया। ‘ इसी बीच एक दिलचस्प वाकया यह हुआ कि जो वकील साहब मेरे खिलाफ यह मुकदमा लड़ रहे थे वह एक ऐसे मामले में फंस गए कि लोग उन का मज़ा लेने लगे। उन दिनों नेट , फ़ेसबुक आदि तो था नहीं लेकिन लाईनबाजी आदि के शौक़ीन लोग तब भी बहुत थे।

उन दिनों अख़बारों में एक विज्ञापन बहुत छपा करता था , लड़कियों से दोस्ती कीजिए , लड़कियों को दोस्त बनाइए। बाक़ायदा पैसा दे कर लोग दोस्ती करते थे। आवेदन भेज कर , फार्म भर कर। और खूब ठगे जाते थे। तो जनाब वकील साहब ने भी एक फार्म भर कर , अपनी फ़ोटो लगा कर दोस्ती के लिए आवेदन कर दिया था। अब कुछ लोगों ने काफी पैसा जमा किया इस दोस्ती के फेर में और फिर ठगे गए तो इस अड्डे की शिकायत कर दी। कुछ प्रभावशाली लोग भी इस धंधे में ठगे गए थे। ठगी का धंधा ही था यह। तो पुलिस ने छापा मार दिया। अख़बार वालों को बुला लिया। कुछ अख़बार वाले भी ठगे गए थे। तो जो फ़ार्म वगैरह पुलिस ने खंगाले तो टाइम्स आफ इंडिया के फोटोग्राफर ने जो फ़ोटो खिंची उस में जो फार्म सब से ऊपर था , वह फार्म इन वकील साहब का ही था , मय फ़ोटो के। वकील साहब की यह फ़ोटो टाइम्स आफ इंडिया में पहले पन्ने पर प्रमुखता से छप गई थी।

वकील साहब को लगा कि इस में मेरा हाथ था। जब कि ऐसा कुछ भी नहीं था। वह तो उसी हफ़्ते मेरी तारीख़ थी , वह हाई कोर्ट में दिखे तो हमेशा की तरह मैं ने हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया। और मजा लेते हुए पूछ लिया , ‘ कहिए वकील साहब कुछ बात बनी भी थी कि फोकट में बदनाम हो गए ? ‘ वह बिलकुल शरणागत होते हुए हाथ जोड़ कर बोले , ‘ माफ़ कीजिए , अब आप के केस को मैं भूल जाता हूं। केस अपने आप खत्म हो जाएगा। आप मुझे माफ़ कर दीजिए और बात को और आगे मत बढ़ाइए। कृपया और मत छापिए। ‘

और सचमुच वह इस मुकदमे से विरक्त होने लगे। अक्सर नंबर आता और वह बहस करने के बजाय गायब रहते। तारीख लग जाती। एक बार मैं ने उन से कहा कि , ‘ मुकदमा उठा क्यों नहीं लेते ? ‘ वह बोले , ‘ मजबूरी है। एक तो कोर्ट नाराज हो सकती है। और फिर जिस ने पैसा दिया है , उस का पैसा भी हलाल करना है। बाद में पता चला कि वह जो बुलबुल सी बोलने वाली जिन वकील साहिबा का चरित्र चित्रण था अपने-अपने युद्ध में , उन की बिसात पर यह कंटेम्प्ट का मुकदमा खड़ा हुआ था। लेकिन परदे के पीछे से वह खड़ी थीं। सामने से कोई और था।

खैर , एक बार एक चीफ जस्टिस आए। बाबू मोशाय थे चीफ जस्टिस। केस टेक अप हुआ। पहले भी वह यह केस सुन चुके थे। इस बार भी मिश्रा जी की दलीलें सुनीं। मेरे बारे में मिश्र जी से पूछा , ‘ आप के क्लायंट कहां हैं ? ‘ हर तारीख पर मेरी उपस्थिति अनिवार्य होती थी , सो मैं उपस्थित था। प्रस्तुत हुआ चीफ़ जस्टिस के सामने। चीफ़ जस्टिस ने कहा कि , ‘ माफ़ी मांग लीजिए , केस खत्म करता हूं। ‘ उन्हों ने जोड़ा , ‘ आई मीन अनकंडीशनल अपालजी। ‘ मुझे तुरंत कमलेश्वर याद आ गए। कमलेश्वर ने कहा था कि माफ़ी मत मांगिएगा। यह कहते हुए जैसे मेरे सामने कमलेश्वर फिर से खड़े हो गए। मैं ने चीफ जस्टिस को संबोधित करते हुए पूरी शालीनता और विनम्रता से कहा , ‘ लेकिन मैं माफ़ी मांगने वाला नहीं हूं। ‘ यह सुनते ही चीफ़ जस्टिस मुझ से नाराज होते हुए बोले , ‘ सोच लीजिए। ‘ मैं ने फिर अपनी बात दुहरा दी , ‘ मैं माफ़ी मांगने वाला नहीं हूं। ‘ चीफ जस्टिस मेरी फ़ाइल पेशकार की तरफ फेंकते हुए मुझे घूरते हुए तमतमा कर बोले , ‘ तो मैं भी सज़ा देने वाला नहीं हूं। सज़ा दे कर आप को हीरो बनाने वाला नहीं हूं। ‘ फिर उन्हों ने अंगरेजी में एक आदेश लिखवा दिया। आदेश के मुताबिक चीफ़ जस्टिस ने मुझे चेतावनी दी थी कि आइंदा इस तरह का लेखन नहीं करें। और कि आगे जब भी कभी यह उपन्यास दुबारा छपे तो इसे संशोधित कर के छापें। ‘

मुकदमा खत्म हो चुका था। मिश्रा जी ने मुझे बधाई दी और हंसते हुए कहा , ‘ देखा कुछ नहीं हुआ। ‘

बाद में एक वकील ने बताया कि आप फिर भी कनविक्टेड हो गए। मतलब सजायाफ्ता। क़ानून की भाषा में चेतावनी भी सज़ा है। खैर मैं घर आया और रात में कमलेश्वर जी को फ़ोन कर के बताया कि ऐसा आदेश चीफ़ जस्टिस ने लिखवाया है। सुन कर कमलेश्वर जी खुश हो गए। बोले , ‘ यह तो बहुत बढ़िया आदेश लिखवा दिया चीफ जस्टिस ने। संशोधित कर के छापने को कहा है तो आप ऐसा कीजिए कि इसे और कड़ा कर दीजिए। न्यायपालिका की और ऐसी-तैसी कर दीजिए। ‘ और हंसने लगे। मैं ने प्रकाशक अरुण शर्मा से कमलेश्वर की इस बात का ज़िक्र किया और पूछा कि , ‘ क्या कहते हैं आप , और कड़ा कर दूं ? ‘
‘ अरे अब और नहीं। ‘ कह कर अरुण शर्मा ने हाथ जोड़ कर कहा , ‘ अब इसे यहीं विराम दीजिए। कोर्ट से खेलना , आग और पानी से खेलने के बराबर हैं। आप का क्या है , आप लेखक हैं। लेकिन मैं ठहरा व्यापारी। दो पैसे कमाने आया हूं। क्रांति करने नहीं। इस भंवर से निकल आए , यही बहुत है। ‘

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जनसत्ता में राजकिशोर ने लंबी चर्चा की। कोई आधा पेज छपा था अपने-अपने युद्ध पर। राजकिशोर ने मुझे सज़ा भी तजवीज कर दी। यह कि कोर्ट में पूरे दिन अपने-अपने युद्ध के लेखक को खड़ा रखा जाए। उस साल दिल्ली के पुस्तक मेले में हर कोई जनवाणी प्रकाशन के स्टाल से अपने-अपने युद्ध ही ख़रीद रहा था। 

मौजूदा दशक में मीडिया के भीतर, और बाहर भी चर्चित रहे दयानंद पांडेय के उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ को जितनी बार पढ़ा जाए, अखबारी दुनिया की उतनी फूहड़ परतें उधड़ती चली जाती हैं। मीडिया का जितनी तेजी से बाजारीकरण हो रहा है, उसके भीतर का नर्क भी उतना ही भयावह होता जा रहा है। ऐसे में ‘अपने-अपने युद्ध’ को बार-बार पढ़ना नितांत ताजा-ताजा सा-लगता है। यह महज कोई औपन्यासिक कृति भर नहीं, मीडिया और संस्कृति-जगत के दूसरे घटकों थिएटर, राजनीति, सिनेमा, सामाजिक न्याय और न्यायपालिका की अंदरूनी दुनिया में धंस कर लिखा गया तीखा, बेलौस मुक्त वृत्तांत है। इसमें बहुत कुछ नंगा है- असहनीय और तीखा। लेखक के अपने बयान में—‘जैसे किसी मीठी और नरम ईख की पोर अनायास खुलती है, अपने-अपने युद्ध के पात्र भी ऐसे ही खुलते जाते हैं।’

 

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