डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : राष्ट्रहित में विरोधियों को अपने पक्ष में करने की नीति

राष्ट्रहित में राज्य को सुस्थिर करने के लिए विरोधियों को पराभूत करना ही आवश्यक नहीं होता, अपितु उन्हें अपने पक्ष में कर लेना भी आवश्यक होता है।

जब कोई शासक विजीगिषु होता है तब उसे पहले अपने विरोधियों को पराभूत करना पड़ता है, लेकिन जब शासन स्थापित हो जाता है तब अधिक से अधिक लोगों को अपने पक्ष में करना आवश्यक होता है, क्योंकि विरोधी जितने कम रहेंगे शासक शासन की सुस्थिरता, विकास और व्यवस्था की ओर उतना ही ध्यान दे सकेगा।

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मगध पर विजय के पश्चात चाणक्य ने नन्दवंश के समय के योग्य लोगों को चन्द्रगुप्त मौर्य के मंत्रिमण्डल और शासन व्यवस्था में समायोजित कर न केवल उनकी कार्य क्षमता का उपयोग किया बल्कि आंतरिक विरोध का भी उपशमन किया। अमात्य राक्षस जैसे धुरंधर कूटनीतिज्ञ को जो पूर्ववर्ती साम्राज्य में भी अमात्य थे उन्हें चन्द्रगुप्त का अमात्य बनवाकर उन्होंने न केवल उनकी योग्यता का लाभ उठाया, बल्कि आन्तरिक असंतोष को भी समाप्त किया।

मगध विजय के सूत्रधार आचार्य चाणक्य, विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले केकय के मंत्री इन्द्रदत्त व गांधार के मंत्री वररुचि तथा पराजित राज्य मगध के मंत्री को भी मंत्री बनाकर अपने उद्देश्य के प्रति समर्पण तथा कुशल राजनय का परिचय दिए।

अपने राष्ट्रहित के ध्येय और उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्ध रहते हुए किसी को अपने साथ लेना कूटनीति होती है, किन्तु ध्येय से हटकर यदि ऐसा किया जाता है तब अवसरवादिता होती है। यदि शासक अपने ध्येय पर अडिग है तो वह किसे अपने साथ लेता है और किसे नहीं लेता यह राजनय का विषय होता है।

साभार – डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह

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